Search This Blog

Monday, 7 December 2015

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी ।

जब ठंड की पहली दस्तक महसूस कर हम, आज के सफ़ेद शालीन स्विचेज़ के पूर्वज उन बड़े बड़े काले स्विचों से अपनी नन्ही उँगलियों का जोर लगा के पंखा बंद कर दिया करते थे । जब सूरज ढलने के बाद ही सर्दियों का एहसास होने लगता था तो अगले ही रविवार पिता जी कोठरी में रखे स्टील की चादर से बने उस भारी भरकम सन्दूक को खोल उसमे से रज़ाई गद्दे निकाल छत पर धूप दिखाने डाल देते थे । रज़ाई गद्दों में से आती वो "फिनाइल की गोलियों" की महक आज भी याद है, उस रज़ाई के खोल का खादी का स्पर्श आज भी याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

वो सर्दियों के कपड़े जो माँ उस छोटे वाले सन्दूक से निकाल के आँगन में धर देती थीं कुछ भूले बिछड़े दोस्तों से लगते थे, जिन से जुड़ी बीते वर्षों कि यादें मन को खुश कर जाती थीं । रंग बिरंगे चुभीले ऊन से बने वो स्वेटर, जिनका रंग और डिज़ाइन खुद मैं ने पसंद किया था , जिसका एक एक रेशा मैं ने अपनी आँखों के सामने बुनते देखा, कुछ इस तरह मुझे ठंड से बचा लेता था कि मानो उसे बनाने वाली मेरी दादी ने मुझे अपने हाथों में समेट रखा हो और ठंडी मुझे छू भी ना पाती । वो ऊन बुनने की सलाइयां जिन्हें मैं तलवार मान कर खेला करता था , आज भी याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

वो सुनहरे बटनों वाला स्कूल का गर्म ब्लेज़र जो उस वर्ष मुझे एक नंबर बड़ा आता था पर खरीदते समय जैसे दो नंबर बड़ा नहीं । और वो ऊनी दस्ताने जिन्हें पहनकर मैं खुद को किसी वि आई पी से कम नहीं समझता था । घरवालों द्वारा ज़बरदस्ती पहनाया गया वो सर का गर्म कैप जो मेरे पैराशूट तेल लगा के नज़ाकत से बनाये गये बालों को ख़राब कर देता था । स्कूल से लौट कर बस्ता फेंक, धूप में बैट-बॉल खेलना आज भी याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

स्कूल में टिफिन में रखे वो पराठें जिन में घी को, माँ अपनी ममता की अभिव्यक्ति समझ के चिपोड़ देती थीं । और लंच की घंटी सुनते ही होने वाली उत्सुकता ये जानने की, कि आज किसके डब्बे से गाजर का हलवा निकलेगा । हर रोज़ घर का बना पर अलग अलग स्वाद का वो गाजर का हलवा । अपने लाड़ली - लाडलों के लिये मेहनत से बनाये उस हलवे की वो खुशबू, वो लाली और वो मिठास, आज भी याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

दिन भले ही छोटे हो जाते थे पर सर्दियों का मज़ा उतना ही बढ़ जाता था । धुएं के नाम-ओ-निशाँ से दूर कोहरा जब वाकई "फोग" हुआ करता था , ना की "स्मोग" । ऐसा लगता था मानो किसी सफ़ेद चादर ने पूरे इलाके को ढँक लिया हो । घर में लगे गुलाब की सुर्ख पंखुड़ियों पे पड़ी ओस की बूँद सूरज की रोशनी में किसी हीरे जैसे चमक उठती थी । और याद है पानी जमा देने वाली उस ठंड में दोस्तों के साथ पेंसिल को सिगरेट बना मुंह से धुआं निकालने का वो ढोंग जिसे कर हम मन ही मन खुश हो लिया करते थे ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

भीषण से भीषण सर्दी भी बचपन के जोश को कभी ठंडा नहीं कर पाती थी । सर्दियों की स्कूल की छुट्टियों में नाश्ते से दोपहर के खाने के बीच बस आँगन में रोज़ उस भीनी धूप में बैठा रहता था । रात बढ़ने पर पिता जी लकड़ियों को एक अंगीठी में जलाकर बैठक में रख देते थे और सब उसके ही इर्द-गिर्द बैठ के खाना खाते थे । लकड़ियो के जलने पे एक अनोखी खुशबू आती थी । कुछ लकडियाँ जो ढंग से सूखी नहीं होती थी अपने धुएं से पूरा कमरा भर देती थीं । उन लकड़ियों के जलते वक़्त आती चट-पट की आवाज़ मुझे याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

अपने चरम पर पहुँच के मौसम फिर से नर्म होने लगता था । ब्लज़ेर की जगह अब बिना आस्तीन के स्वेटर से काम चल जाने लगता था और मीठे में गाजर के हलवे की जगह गुड़ की खस्ता गज़क से ही मन भर लिया जाने लगता था । मकर संक्रांति पे घर के बने तिल और लाइ के लड्डू खाने का मज़ा । और अगली सर्दियों तक अपने प्यारे रंग बिरंगे ऊनी कपड़ो को एक और बार पहन कर तसल्ली कर लेने के बाद सर्दियों को अलविदा कहना भी मुझे याद है ।

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी

अब सर्दियां बदल गयी हैं और जिंदगियां भी । रजाई की जगह अब "मिंक ब्लैंकेट" ने ले ली है , और अंगीठी की जगह बिजली से चलने वाले उपकरणों ने । गाजर का हलवा भी अब मिठाई की दुकान तक ही सीमित रह गया है । माँ और दादी-नानी के हाथ से बुने उन स्वेटरों का स्थान अब ब्रांडेड जैकेट और "स्वेट शर्ट्स" ने ले लिया है । अब कोहरे में सामने से आते हुए राहगीरों को दूर से पहचान लेने का रोमांचक खेल भी ख़त्म हो गया है, पर गनीमत है कि

आज भी याद हैं वो सर्दियाँ सुहानी ।

1 comment:

  1. Warm and nostalgic!!..indeed made me remember 'wo sardia suhani'!:)

    ReplyDelete