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विजयदशमी है ज्ञात हो,
सत्य की असत्य पर, अच्छाई की बुराई पर,
जीत का उत्सव पर्व अनूप यह,
राम जी के द्वन्द का, लंका की चढ़ाई पर |
इससे अलग द्वन्द एक और भी था चल रहा,
चर्चा उसकी की कम जाती है,
क्या हो जब शत्रु कोई दानव-दैत्य न हो,
और समय की गति भी थम जाती है |
एक ओर प्रभु अपने कर्तव्य पथ पर
चलते हुए, अपने भक्तों को तार रहे थे,
भैया लक्ष्मण संग, वानर सेना,
कर उनके जय जयकार रहे थे |
हर दिन मिलती कुछ नयी सूचना,
नित नित रणनीति बनाते थे,
जब भी विश्वास मन का होता डगमग,
" जय श्री राम " के उद्घोष हिम्मत बंधाते थे |
पर युद्ध जो था दूसरा चल रहा,
उस में न संभावनाएं न ही कोई उन्माद था,
विजय की अभिलाषा से होता उदय सूर्य,
पर रात्रि में पराजय का ही स्वाद था |
शत्रु भी था, सर्वशक्तिमान,
अदृश्य, अनादि-अनंत था,
कालचक्र था नाम उसका,
समग्र सृष्टि का महंत था |
और ये एक बेचारी सी अबला स्त्री,
एक फूल सरीखी राजकुमारी,
ना शस्त्र-अस्त्र, ना साथ कोई सेना,
एक एक दिन पड़ता था भारी |
मन था व्याकुल, और था भय भी,
ना साथ कोई शक्ति का स्त्रोत,
ना कोई रणनीतिज्ञ ना कोई मित्र,
बस प्रभु मिलाप की अखंड ज्योत |
कैसे हे माता तुमने क्षण क्षण निकाला,
अपने प्रभु की आस में,
कैसे संभाले रखा स्वयं को तुमने,
इस जीवन रुपी त्रास में |
युद्ध कठिन वह नहीं है,
जिसमे विजय की आशंका क्षीण हों,
युद्ध कठिन तो वह है बल्कि जिस में,
निर्णय शत्रु के अधीन हो |
जब स्थिति पर नियंत्रण तुम्हारा ना हो,
आशा ही एक मात्र सामर्थ्य हो,
शील तुम्हारा बने ढाल अभेद्य,
उत्कंठा का हर वार व्यर्थ हो |
हे माता यह युद्ध आपका,
राम और रावण युद्ध की परछाई होगा,
अच्छाई - बुराई, सत्य- असत्य से परे,
धैर्य भी विजयदशमी का पर्याय होगा |
संयम के इन आभूषणों को सीते करो धारण,
समय के विर्रुद्ध शस्त्र ये बन जाएंगे,
विजय तिलक कराने, मस्तक ले अपना,
प्रभु श्री राम अवश्य आएँगे ||
|| जय श्री राम ||
- कुलदीप