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Sunday, 9 October 2016


रावण का दर्पण


आखिर तुझ में ही छिपा हूँ मैं, तू मार मुझे क्या पायेगा ?
आ दिखलाऊँ दर्पण तुझको, चित्त तेरा काँप जाएगा |

छाती पर लोट जाता है सांप मेरी, जब धनुष राम उठाता है,
क्या चुभता नहीं काँटा मन में, कोई, जब तुझसे अधिक प्रशंसा पाता है ?

सूर्पनखा की नाक काटकर, शक्ति को मेरी था ललकारा,
जब वार हो प्रतिष्ठा पर, तेरा भी तो चढ़ता है पारा |

अपमान का जब बोध हुआ, प्रतिशोध का मैंने था प्रण लिया,
हुआ आहत जब स्वाभिमान, तूने भी तो है यही किया |

मारीछ को मृग, और खुद को भिक्षु, सीता हरने को किये ये छल,
जब होती है परिस्थिति विरुद्ध, तू भी तो लेता है भेस बदल |

स्त्री थी वो किसी और की फिर भी, हरने का दुस्साहस मैं हूँ करता,
जैसे पराई संपत्ति पर मोह से, अपनी दृष्टि है तू धरता |

मंदोदरी का तिरस्कार किया, अस्वीकार कर दिया उसका साथ,
नए अवसर को पा कर जैसे तू, छुड़ा लेता है पुराने रिश्तों से हाथ |

आया चेतावनी लेके जब वानर, उसकी ना मैंने एक सुनी,
अपने मन में स्वयं की शौर्य गाथा, तुझ जैसे ही मैंने भी बुनी |

दूर कर दिया देश और दृष्टि से, अपने ही भाई को मैंने तब,
सत्य का जब-जब प्याला पीया, निगल उसे पाया तू कब ?

पुत्र, प्रजा, परिवार को रणभूमि में, मरने के लिए मैंने छोड़ दिया,
लालच के वश में आके तूने जैसे, कितनो का ह्रदय तोड़ दिया |

सर्वज्ञानी हैं कहते मुझको, और कहते महाशक्तिमान हैं,
सुनने को अपना भी ऐसा वर्णन, तरसते, तेरे भी तो कान हैं |

राम बनना इच्छा नहीं, पर ये है मजबूरी तेरी,
मिल जाये पराक्रम मुझ जैसा, रावण बनने में ना होगी देरी |

पुतले कितने भी जल ले तू, तू मार मुझे नहीं पाएगा,
आखिर तुझ में ही छिपा हूँ मैं, तू राम कहाँ से लाएगा ?


- कुलदीप