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Monday, 18 August 2014

कृष्ण आश्चर्यचकित नहीं हैं ।

मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ , यद्यपि मेरे भक्तों के द्वारा गढ़ा ये संसार मेरे समक्ष अनेको विस्मय्पूर्ण प्रश्न लेकर खड़ा है , पर फिर भी, मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

सम्पूर्ण विश्व मेरा जन्मदिन अतिहर्ष व उत्साह के साथ मनाता है । ये विश्व मुझे सबसे बड़ा अध्यात्मिक गुरु भी मानता है, यह सोच कर मैं हमेशा इठलाता हूँ । इस कारण से ही मेरा अभिषेक मुझे चन्दन में लिपटा के, मुझे चांदी की चौकी पे विराजमान करके , स्वर्ण कलश एवं शंख से निर्मल पंचामृत प्रवाह करके करते हैं । वास्तविकता में तो मेरा जन्म अँधेरे कारागार की मलिन भूमी पर हुआ था, परन्तु ऐसे भव्य जन्मदिन का आनंद लेकर मैं प्रसन्न हो उठता हूँ । विडंबना यह है कि प्रतिवर्ष मेरी भव्य जन्माष्टमी का आयोजन करने वाले मेरे भक्तों के ही इस समाज में आज भी कुछ बाल-कृष्ण सामान्य व्यवस्था से वंचित होने के कारण, मलिन भूमि पर ही जन्म लेने के लिए मजबूर हैं । पर मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

मेरी बाल अवस्था में जब यमुना का जल कालिया ने दूषित कर दिया, तो मैंने उसे हराकर यमुना से दूर जाने पर विवश कर दिया व जीवनदायनी यमुना के जल को पुनः स्वच्छ किया । आज कालिया नहीं है परन्तु यमुना फिर दूषित है । दुविधा यह है कि दूषित करने वाला कोई और नहीं मेरे अपने प्रिय भक्त हैं । ये भक्त तो मेरे अपने हैं, मैं इन्हें तो यमुना से दूर जाने पर विवश नहीं कर सकता । मैंने सोचा था की जब कालिया की कथा का ये स्मरण करेंगे तो यमुना फिर कभी दूषित नहीं होने देंगे पर....
फिर भी मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

वृन्दावन के मेरे भोले ग्वाल अच्छी फसल की उपज के लिए अपने कर्म से अधिक देवराज इन्द्र को प्रसन्न करने में परिश्रम करते थे । मैंने इस परंपरा का विरोध किया और अपने वृन्दावन वासियों को ज्ञात कराया कि कर्म ही पूजा है एवं किसी अदृश्य व प्राकृतिक शक्ति को प्रसन्न करने के स्थान पर अपने कर्म को ही धर्म मान कर उसमे परिश्रम करे तो फलस्वरूप उन्हें अधिक सफलता प्राप्त होगी । मेरे इस कृत्य से रुष्ट होकर देवराज इंद्र ने वृन्दावन पे अत्यधिक वर्षा की जिसके कारण मुझे गोवर्धन पर्वत उठाकर अपने वृन्दावन वासियों की रक्षा करनी पड़ी । आज भी मेरे भक्तों में यह कथा जीवित है...पर मेरे नवयुगी भक्त उससे शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाए और फिर से मैं आज उन्हें उस ही अज्ञानता के पथ पे चलता हुआ देख रहा हूँ । पर मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

मेरी युवावस्था का ज्ञान सभी को है, मेरी प्रेम लीला का भी । राधारानी के माध्यम से मैंने मनुष्य को प्रेम की पवित्रता, महानता व शक्ति का बोध कराया । आज भी मेरे भक्त मुझे राधा के साथ ही अपने पूजा के स्थानों में स्थापित करते हैं और ये प्रेम की ही शक्ति है की मेरे पूजन के लिए "राधा" नाम का जाप किया जाता है पर ऐसा लगता है कि मेरे भक्तो द्वारा किया जाने वाला ये प्रेम-गुणगान मात्र एक दिखावा है मुझे प्रसन्न करने के लिए । क्यूंकि मेरे भक्तो के ही इस समाज में , मिथ्य की प्रतिष्ठा के लिए, प्रेम रस में डूबे अनेको राधा-कृष्ण के जोड़ो का या तो बहिष्कार कर दिया जाता है या फिर उन्हें मार दिया जाता है । मेरे जीवन के सबसे दीर्घ व महत्वपूर्ण काल को मैंने प्रेम को समर्पित कर दिया फिर भी मेरे भक्त शायद नहीं जान पाए कि मैं उन्हें क्या समझाना चाहता था, परन्तु मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ।

मेरे भक्त मुझे द्वारकाधीश के रूप में भी पूजते हैं । द्वारकाधीश बनकर मुझे असीमित धन-धान्य एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई परन्तु जब मेरे बाल काल का सखा सुदामा मुझसे मिलने मेरे पास आया तो मैं उससे उस प्रकार ही मिला जैसा वर्षों पूर्व एक ग्वाल बाल के रूप में मिलता था । मेरी अपनी प्रजा यह देखकर चकित थी कि उनका धनाढ्य राजा एक गरीब ब्राह्मण के गले से लिपटा हुआ इतना प्रसन्न है । सुदामा के द्वारा मैंने मानव को ज्ञात कराया कि मित्रता सर्वोपरी है व धन या प्रतिष्ठा कभी भी मित्रता का आधार या बाधा नहीं होना चाहिए । मेरे भक्त मेरे इस कृत्य की जय-जयकार करते हैं परन्तु मुझे ज्ञात होता है कि मेरा यह परिश्रम भी व्यर्थ ही गया...आज तक मेरे नयन इस पृथ्वी पर दूसरे कृष्ण-सुदामा के जोड़े को ढूंढते है...इस खोज में मैं असफल हूँ पर आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

कुरुक्षेत्र की रणभूमी पर अर्जुन को मैंने गीता का ज्ञान दिया । आज मेरे अनेको भक्त श्रीमद भगवत गीता का अनुसरण करते हैं । उनके मंदिर की दीवारों पे गीता का सार लिखा हुआ देख मुझे संतोष होता है । पर जब मैं कुछ और गहराई से अपने भक्तो के अन्दर झांकता हूँ तो पाता हूँ की गीता की शिक्षा को मेरे भक्तो ने अपने मस्तिष्क में तो उतार लिया परन्तु अपने ह्रदय व अपनी आत्मा में उतारने में वे अभी भी असफल हैं ...आज भी वे स्वार्थ के बन्धनों से मुक्त न होने के कारण धर्म के पथ पर चलने में असमर्थ हैं।
पर मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।

और भी अनेको ऐसे कारण हैं जिसके लिए मेरे भक्त मुझे पूजते हैं, मंदिरों में मेरे भजन करते हैं, मुझे विश्व अध्यात्म का सर्वोच्च गुरु मानता है। मेरे द्वारा दिया गया सारा ज्ञान उपलब्ध होने के पश्चात् भी अपने भीतर स्थापित कृष्ण को मेरे भक्त नहीं ढूंढ सके, पर मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ क्यूंकि ये समय , ये परिस्थितियां मैंने अपने सारे नौ अवतारों में देखी है । हर युग में मनुष्य एक देवता के रूप से प्रारंभ होके अज्ञानता व अन्धकार के पथ पर बढ़ने लगता है और युगांत तक पहुँचते पहुँचते मानवता - दानवता का रूप ले लेती है, और मुझे फिर जन्म लेना पड़ता है....एक नए युग को प्रारंभ करने के लिए....यही समय-चक्र है, और यही सृष्टि की नीति है । यही कारण है कि मैं आश्चर्यचकित नहीं हूँ ।